क्या ये इंसान नहीं हैं ...या इनका दुनिया में
कोई नहीं तो इंसानियत भी ख़त्म हो गयी ...क्या इंसान होने के नाते हम इनको
सहारा नहीं दे सकते ?
औसतन
उसका इस्तेमाल सिर्फ
25 मिनट
किया जाता है
लेकिन उसे खत्म
होने के लिए
करीब 500 साल लग
जाते हैं. और
ये प्लास्टिक जब
समंदर का कचरा
बन जाए तो
गंभीर समस्या खड़ी
हो जाती है.
समंदर
किनारे छुट्टियां मनाने
आए लोगों के
लिए यह आम
होता है. कि
पानी में अचानक
पैर पर कुछ
गुदगुदाता हुआ महसूस होता
है. लेकिन यह
कोई मछली नहीं
बल्कि कहीं से
बह आया प्लास्टिक का
टुकड़ा होता है.
क्या यह किस्मत
की बात है.
जानकारों का कहना है
कि नहीं. उनके
मुताबिक दुनिया भर में
65 लाख
टन प्लास्टिक सालाना
समंदर में फेंका
जाता है. संयुक्त राष्ट्र के
पर्यावरण कार्यक्रम के मुताबिक समंदर
के प्रत्येक वर्ग
किलोमीटर में 13000 प्लास्टिक के कण बिखरे
हुए हैं और
लहरों के साथ
वह पूरी दुनिया
के सागरों में
फैल रहे हैं.
बर्लिन
में समुद्र संरक्षण के
लिए हुए सम्मेलन में
दुनिया भर के
200 विशेषज्ञों ने
भाग लिया. इसमें
बिन प्लास्टिक समुद्र
नाम का घोषणा
पत्र तैयार किया
गया. इसमें मांग
की गई है
कि यूरोपीय सागरों
में 2050 तक प्लास्टिक 50 फीसदी
कम कर दिया
जाए. इसमें सबसे
बड़ी मुश्किल है
प्लास्टिक की थैलियां और
बिलकुल छोटे छोटे
प्लास्टिक के गोले, जो
अक्सर पीलिंग और
नहाने की जेल
में मिलाए हुए
होते हैं. यह
इतने छोटे होते
हैं कि पानी
की सफाई के
दौरान यह छनते
ही नहीं.
प्लास्टिक से भरे पेट
आखिर
यह प्लास्टिक समंदर
में जाता कैसे
है. अधिकतर कचरा
धरती से पानी
में जाता है.
इंग्लैंड और नीदरलैंड्स में
खुले कचरे के
डिपो के कारण
नदी से बहता
हुआ कचरा समंदर
में पहुंच जाता
है. मछलीपालन केंद्रों से
भी कचरा निकलता
है. खासकर बेकार
हो चुका जाल
अक्सर पानी में
फेंक दिया जाता
है.
पानी
में रहने वाले
जानवरों के लिए यह
जानलेवा है. प्रकृति संरक्षण संघ
के किम डेटलॉफ
कहते हैं, जानवरों को
पानी में कचरा
नहीं दिखाई देता.
इस कारण वह
गंभीर चोट के
शिकार हो जाते
हैं और कई
बार इस कारण
मर भी जाते
हैं. अक्सर मछलियां या
दूसरे समुद्री जीव
इसे खा लेते
हैं. यह पेट
में जमी रहती
हैं. वे इसे
खा तो लेते
हैं लेकिन पचा
नहीं पाते. इसलिए
पेट प्लास्टिक से
भरा रहता है
लेकिन ये प्राणी
भूखे मर जाते
हैं. इंसान को
भी इससे आखिरकार नुकसान
होता है.
रवांडा से सीख
तो
क्या प्लास्टिक की
थैलियों पर रोक लगा
दी जाए. जर्मनी
का पर्यावरण संरक्षण मंत्रालय और
कई प्रकृति संरक्षण संगठन
इसी की सलाह
देते हैं. दवाई
की दुकानों, शॉपिंग
मॉल, कपड़े की
दुकानों में प्लास्टिक की
थैलियां मुफ्त नहीं दी
जाएं. जर्मनी में
जिस पर अभी
विचार किया जा
रहा है दुनिया
के कई देशों
में इस पर
अमल शुरू कर
दिया गया है.
इसका असर कुछ
ऐसा हुआ कि
आयरलैंड में, जहां लोगों
को प्लास्टिक थैली
खरीदनी पड़ती है,
वहां इसका इस्तेमाल 90 फीसदी
कम हो गया
है, प्रति व्यक्ति प्रति
वर्ष 18 थैलियां कम
हो गई. जर्मनी
में अभी सालाना
प्रति व्यक्ति 71 प्लास्टिक की
थैलियां इस्तेमाल होती हैं, बुल्गेरिया में
इसकी संख्या 421 है
जबकि यूरोपीय संघ
में 198. केन्या और
यूगांडा में पतली प्लास्टिक की
थैलियां पूरी तरह प्रतिबंधित हैं.
मोटी थैलियां हैं
लेकिन इनकी कीमत
काफी है. वहीं
पूर्वी अफ्रीकी देशों
रवांडा, तंजानियां में
करीब सात साल
से एक भी
थैली बाजार में
नहीं आई, बांग्लादेश और
भूटान में भी.
डेटलॉफ कहते हैं,
"यह
दिलचस्प है कि यूरोप
विकासशील देशों से सीख
सकता है."
प्रकृति संरक्षण के
लिए काम करने
वाले संगठनों का
आरोप है कि
प्रयास काफी नहीं.
डेटलॉफ मांग करते
हैं, "हमें प्लास्टिक का
इस्तेमाल कर करना होगा.
और यह सीधे
प्रोडक्ट डिजाइनिंग के साथ शुरू
हो. ऐसे उत्पाद
बनाएं जिन्हें रिपेयर
किया जा सके.
हम पैकिंग मैटेरियल का
कम इस्तेमाल करें.
यह बहुत अहम
है."
यह
भी भूलने वाली
बात नहीं कि
यही विकसित देश
हैं जहां फेंकने
की मजबूरी है.
इलेक्ट्रॉनिक सामान से लेकर
अलमारी, बिस्तर, वैक्यूम क्लीनर
तक कुछ भी
रिपेयर नहीं होता.
सब फेंक दिया
जाता है. कुछ
सामान तो रिसाइकल होता
है लेकिन बाकी...